Love Story – प्यार, इश्क़, मोहब्बत एक ऐसा विषय है जिस पर हर युग में बहुत लिखा गया है , लेकिन फिर भी ये कभी पुराना नहीं पड़ा | हर युग, हर पीढ़ी ने अपनी नज़र से इसे समझने और समझाने की कोशिश की है, लेकिन सच कहें तो कोई भी इसे पूरी तरह व्यक्त नहीं कर पाया | इस ब्लॉग में इकोनॉमिक्स विषय से सम्बंधित कॉलेज वाली Romantic Love Story लिख रहे है |
इकोनॉमिक्स वाला लव
कल से सर्द दिन शुरू हो जाएँगे। दिव्या ने अख़बार का पहला पन्ना पढ़ने को उठाया तो उसमें यही लिखा था। सर्दियाँ जितनी जल्दी आती हैं, उतनी जल्दी चली भी जाती हैं। दिव्या को याद आया कि जब वह बचपन में कुमाऊँ में अपने गाँव जाती थी, तो कितनी ठंड पड़ती थी। कलेजा तक काँप जाता था। लेकिन गिरती हुई बर्फ़ की सफ़ेद चादर सब कुछ भुला देती थी। कल बारिश हुई तो हल्की सी ठंड हो गई थी। लेकिन दिल्ली की ठंड कोई ठंड थोड़े ही है। कुहरा भी अब हल्का ही होता है।
शहर के लोगों ने मौसम को कितना बदल दिया और मौसम ने शहर के लोगों को, उसने सोचा। सोचती वह बहुत थी करने के लिए उसके पास कम चीज़ें थीं। इस साल दिव्या बारहवीं का इम्तहान देगी। दे भी सकेगी कि नहीं इस बात का उसे कुछ ख़ास अनुमान नहीं है। कोरोना में एक तो सब स्कूल बन्द हैं, ऊपर से क्लास और पढ़ाई दोनों ही करने में बड़ी दिक़्क़त आती है। सवाल सिर्फ और सिर्फ़ वेब क्लास लेकर समझे नहीं जा सकते। अगर ऐसा होता तो किसी को स्कूल जाने की कभी ज़रूरत नहीं पड़ती।
दिव्या ने कितनी बार पापा को कहा कि उसका ट्यूशन लगवा दें, लेकिन पापा थे कि सुनने का नाम ही नहीं लेते थे। सिर्फ़ इतना कहते और बात टली की टली रह जाती-“हमारे ज़माने में तो हम काम भी करते थे और पढ़ते भी थे! ट्यूशन की ज़रूरत हमें तो कभी नहीं पड़ी।”यह बात करके पापा दिव्या को चुप करवा देते। लेकिन दिव्या जानती थी कि बिना ट्यूशन वह पास तो हो जाएगी लेकिन बढ़िया नंबर नहीं आएँगे। वह यह भी जानती है कि अगर इस साल टॉपर के सौ फीसद नंबर आये हैं, तो उसे कम से कम अस्सी तो लाने ही होंगे ताकि कोई हीनता से उसे न देखे ।
Love Story
ज़िन्दगी की असली रेस स्कूल के बाद शुरू होती है यह बात वह घर में कितनी बार सुनती थी। पिछली बार जब पड़ोसी शर्मा जी के लड़के के नब्बे फीसद आए तो दिव्या की ओर मुँह करके पापा ने कहा था- “देख रही हो कितना समझदार है। अगले साल तुम्हारे भी बोर्ड्स हैं न, मेरा नाम रोशन करना बेटा।” पापा की बात सुनकर दिव्या ने एक बोझ महसूस किया था उस रोज़ । बच्चे ठीक-ठीक कह नहीं पाते लेकिन उनकी ओर लगाई गई हर उम्मीद कब बोझ और यातना में बदल जाती है कोई नहीं जान सकता।
कभी शिक्षक की उम्मीदें, तो कभी घर वालों की। क्यों लगाते हैं सब उम्मीद यह जानते हुए कि उम्मीद कितनी ‘भारी होती है कुछ नाजुक दिलों के लिए। दिव्या कितनी बार यह सब कह देना चाहती थी कि वह रेस का घोड़ा नहीं है। स्कूल की एक सामान्य लड़की है जिसने कभी ज़िन्दगी में टॉप नहीं किया। न कभी चाहत ही हुई। किताबें अगर ज़िन्दगी होतीं, तो लोग लकड़ियों के घर नहीं बनाते न। लेकिन ऐसा भी नहीं था कि उसे किताबें पसन्द नहीं थीं। स्कूल की किताबों से उसे बेइंतहा मोहब्बत थी। ग्यारहवीं में भी उसने लड़कर आर्ट्स लिया था। पेंटिंग में उसने बहुत से पुरस्कार भी पाए थे।
ख़ुद को साबित करना सबसे बड़ी चुनौती होती है ख़ासकर तब जब बारहवीं के इम्तहान हों। दिव्या ने जी-जान लगाकर पढ़ाई शुरू कर दी थी। कोरोना में न वह कहीं बाहर जाती थी न कोई बाहर से आता ही था। हाँ फ़ोन पर समय बीतता जाता था। बोर्ड होंगे नहीं होंगे के बीच उसने अभी तैयारी शुरू कर दी थी। साल ख़त्म होने में सिर्फ़ एक महीना ही बचा था। दिसम्बर में इम्तहान होंगे या नहीं यह अभी तक तय नहीं हो सका था।
इकोनॉमिक्स वाला लव
इकोनॉमिक्स के जाने कितने ही सवाल उसे समझ नहीं आ रहे थे। ऐसा नहीं है कि पढ़ाने वालों की ग़लती है बल्कि मैम तो अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश कर रही थीं। लेकिन हर बच्चा इतना समझदार नहीं होता कि झटपट पकड़ ले। कुछ बच्चे सामान्य होते हैं और कुछ किसी विषय में कमज़ोर । दिव्या गणित में हमेशा कमज़ोर रही। तथ्य की दुनिया को समझने की अपनी दुश्वारी थी। वे उसकी समझ में कभी नहीं आए। पापा ट्यूशन के लिए मना कर ही चुके थे। उसे समझ नहीं आ रहा था कि अब किसके पास जाकर मदद माँगे।
उसने आशीष को फ़ोन लगाया। आशीष उसके स्कूल का इकोनॉमिक्स का ग्यारहवीं का टॉपर था। तय किया गया कि एक दिन मिलकर सब सवाल समझा दिए जाएँगे। मिला कहाँ जाएगा की दुविधा बनी हुई थी तो तय किया गया कि मैक-डी में ही मिल लियाजाएगा। ठीक सुबह दस बजे दोनों मिले और मैक-डी में किताबें खोल बैठ गए। पास में एक कॉफ़ी का कप और ऑर्डर किया हुआ बर्गर रखा हुआ था। लगभग सभी सवाल हल हो गए थे। आशीष ने पेमेंट की और घर निकल गया। दिव्या भी घर निकल आई थी लेकिन आशीष उसके दिमाग़ से निकल नहीं रहा था।
लड़कियाँ उन लड़कों से ज़्यादा इम्प्रेस हो जाती हैं, जो उन्हें इम्प्रेस नहीं करते बल्कि मदद करते हैं। आशीष उन्हीं लड़कों में से था। पढ़ने वाला शान्त लड़का । उसकी कभी कोई गर्लफ्रेंड नहीं रही थी। लेकिन वह लड़कियों का बहुत सम्मान करता था। लड़कियों को ज़िन्दगी में कुछ ही चीज़ें चाहिए होती हैं सम्मान, बराबरी और थोड़ी-सी केयर। जहाँ ये मिल जाएँ वहीं उनका मन लग जाता है। आशीष से दिव्या की दोस्ती हुए भी कुछ दिन हुए थे। फ़ोन पर हर दिन बात होने लगी थी। दिव्या ने एक दिन फिर आशीष को फ़ोन किया और कुछ सवाल हल करने के लिए बुलाया।
आशीष जानता था दिव्या उसे पसन्द करने लगी है। दिव्या भी जानती थी आशीष उसे पसन्द करता है। ठीक बारह बजे दोनों फिर एक बार मिले और शाम तक पढ़ाई की। जाते हुए आशीष ने एक गुलाब का फूल दिव्या को थमा दिया था।
“ले जाओ न।”
“पर मैं घर पर क्या कहूँगी!” की हल्की आवाज़ कैफ़े में गूँज रही थी। पास बैठे लोगों को मालूम चल रहा था कि दोनों का पहला प्यार है शायद। दिव्या ने फूल को अख़बार के पन्ने में लपेटकर बैग में डाल लिया था। आशीष उसे ऑटो करवाकर घर जा चुका था। ऑटो में गाना बज रहा था, ‘कोई आरजू गीत गा तो रही है मगर धरि-धीर!’ घर पहुँचने पर फ़ोन खोलकर दिव्या ने देखा तो उसमें एक मैसेज लिखा था। ‘मुझे इकोनॉमिक्स से मोहब्बत हो गई है शायद, फ़िल्म देखने चलोगी?’
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