Love Story in Hindi

पतझड़ के पाँच पत्ते

पतझड़ के चार पत्ते ठीक उसके देखते-देखते ही शाख से अलग हो गए थे। हर एक पत्ता उसे उदासीन और बेरंग ही दिखा। ये मौसम है ही इतना उदासीन, सर्द हवाओं का रूखा मौसम। शायद इसलिए अंग्रेज़ी के अधिकतर कवियों ने इसी मौसम में अनगिनत रचनाएँ लिखीं। बेजान पड़े मन और लोगों के बीच एक प्रकृति ही तो है, जो हमेशा रंग बिखेरती है, लेकिन वह प्रकृति भी इस मौसम में कुम्हला जाती है। सौम्या को ये मौसम क़तई पसन्द नहीं। हर बार सर्दी आते ही वह घर से निकलना बन्द कर देती है।

सर्द मौसम में एक तो घर की रजाई और दूसरा कुछ न करने की इच्छा दोनों पैदा हो जाती हैं। लेकिन इस बार ऐसा क़तई नहीं है। जब से ईशान आया है चीज़ें बदल गई हैं। बदली तो ज़िन्दगी भी है लेकिन मौसम ज़्यादा बदला जान पड़ता है। उसके आने के बाद रजाई का मोह कब जाता रहा, सौम्या तय नहीं कर पाई है।सर्द रातों में बगैर बर्फ़ का शहर भी अब उसे कुछ गुदगुदी कर जाता है। शहर में बहुत कुछ न भी बदलता हो पर अगर एक भी नया शख़्स आपकी ज़िन्दगी में आए, तो ज़िन्दगी और शहर दोनों बदलने लगते हैं

ये बात न जाने कितनी बार सौम्या ने सुनी है, पर महसूस उसने ईशान के आने के बाद ही की है। सुनना और महसूस करना दो अलग-अलग चीज़ें हैं, यह बात वह जानती है। यह सब वह ख़ुद से कह ही रही थी कि फ़ोन की रिंग बजी। फ़ोन ईशान का था। दोनों ने जैसे बहुत दिन बाद हेल्लो सुना और कहा।हेल्लो के बाद देर न लगाते हुए ईशान ने झट से बोल दिया, “इससे पहले तुम्हें लगे कि हम ब्रेकअप कर लें, मैं कल दिल्ली आ रहा हूँ।” सिर्फ इतना कहकर वह फ़ोन रख चुका था। सौम्या जानती थी कि अगर वह कल आएगा तो ठीक दोपहर के समय पहुँचेगा और पीसी में मिलेगा।

ठीक उसी जगह जहाँ से सब शुरू हुआ था प्यार अगर लम्बा चले तो आप जान रहे होते हैं कौन, कब, कहाँ, किस समय मिलता है। ये आदत नहीं एक-दूसरे को जानने की प्रक्रिया में शुमार हो जाता है। फिर सौम्या और ईशान का प्यार तो पूरे दस साल पार कर चुका था। कहते हैं कि बचपन का प्यार बहुत टिकता नहीं। सच बात है, लेकिन अगर यही प्यार टिक जाए तो उससे ज़्यादा बेहतरीन रिश्ता शायद ही कोई और होता हो।

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सौम्या ईशान की चुप्पी तक का अर्थ जानती थी और ईशान सौम्या का हर आँसू बहुत दूर से महसूस कर सकता था। दुनिया में रिश्ते अगर सिर्फ़ जिस्मानी होते, तो प्यार नाम की किसी चीज़ का जन्म ही नहीं होता। लेकिन जिस्म की दुनिया के बाहर भी एक दुनिया थी, जिसकी ज़रूरत आदमी को सबसे ज़्यादा रही, वह थी समझ। आदमी और जानवर के बीच का सफ़र यह समझ ही तय करती है। सौम्या समझती थी चीजें उतनी सरल नहीं होतीं, जितनी वे दूर से लगती हैं। ठीक एक साल पहले जब ईशान अपने शहर वापस लौटा तो उसने सोचा नहीं था कि उनके बीच दूरियाँ इतनी बढ़ जाएँगी कि उसे पार करना एक असाध्य काम लगेगा।

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सौम्या ठीक समय पर पहुँच गई थी, ईशान ठीक एक घंटा देरी से आया था। उसने सौम्या को पहले एक किताब थमाई और बातों का सिलसिला चल निकला। ईशान को नहीं मालूम था कहाँ जाना है, लेकिन सौम्या जानती थी कि अब वे और साथ नहीं चल सकते। उसने ईशान को देखा और एक साँस में बोल दिया, “पढ़ाई के दिन अलग थे तब हम साथ थे, साथ का मतलब दूरी नहीं होता। साथ का एक सामान्य मतलब साथ ही होता है! दो शहर एक रिश्ते में बँधकर कभी साथ नहीं चलते, बल्कि दो शहर दो शहर ही हो सकते हैं।”

ईशान जानता था कि शहर बदल जाने से उनका रिश्ता कितना बदल गया था। अब वे न तो एक-दूसरे से ठीक से बात कर पाते थे और न ही मिल पाते थे। कुछ उसकी भी ग़लती थी और शायद कुछ समय का दोष भी। सौम्या तय कर चुकी थी कि वह अब साथ नहीं रह सकते। ईशान ने भी तय किया था कि वे अब साथ ही चलेंगे। दो विपरीत दिशा में सोचने वाले, रास्ता खोजने के लिए तब कहीं बाहर नहीं गए थे

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सौम्या ने पेड़ से गिरे दो पीले पत्ते उठा लिए थे और ईशान ने भी पास पड़े दो हरे पत्ते उठाए थे। दो पीले और दो हरे पत्ते के बीच अब उन्हें पेड़ से गिरने वाले नए पत्ते का इन्तज़ार था।दोनों ने तय किया था कि उनका रिश्ता वे नहीं, मौसम तय करेगा। इसलिए एक ने ख़त्म करने के लिए पीले पत्ते उठाए, तो दूसरे ने बचे रहने को हरे पत्ते । हल्की हवा में मौसम ठिठुरन से भरा था। दोनों पेड़ से आख़िरी यानी पाँचवें पत्ते के गिरने के इन्तज़ार में बैठे रहे। एक घंटा, दो घंटे और फिर चार घंटे बीत चुके थे। बाहर मौसम बदलने लगा था लेकिन पेड़ का एक भी पत्ता नहीं गिरा था।

देखते ही देखते सौम्या ने अपना सिर ईशान के कंधे पर रख लिया और बोली, “क्या हम दोस्त रहें, जैसे प्रेमी होने से पहले थे।”ईशान ने हाँ में सिर हिला दिया फिर बोला, “और प्रेमी भी।” बीच की उलझन बीच में ही रह गई।

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दोनों बहुत देर बैठने के बाद अब जा चुके थे। पेड़ ने कुछ देर बाद एक पत्ता गिराया, वह हल्का हरा था। शाम अब सर्द हो चली थी। शहर में आसपास बहुत सी लाइटें जल रही थीं। दोनों अब कैब लेकर शहर से घर की ओर निकलने लगे थे। सौम्या का सिर अभी भी ईशान के कंधे पर था। कैब में एक ख़ूबसूरत गाना चल रहा था, “तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई, शिकवा तो नहीं, शिकवा नहीं, शिकवा नहीं। तेरे बिना ज़िन्दगी भी लेकिन, ज़िन्दगी तो नहीं।”


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