Motivational Story in Hindi

कलाकार के आंसू

विख्यात कलागुरु अवनींद्रनाथ टैगोर परम धार्मिक और श्रीकृष्ण भक्त थे। उन्होंने अपने शिष्य नंदलाल को भगवान श्रीकृष्ण का एक सुंदर चित्र बनाने का आदेश दिया। कुछ दिनों बाद नंदलाल चित्र बनाकर उनके पास पहुंचे।

अवनींद्रनाथ के पास उस समय गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर बैठे हुए थे। जैसे ही नंदलाल ने अपने गुरु को चित्र दिया कि उन्होंने उसे कुछ देर देखने के बाद फेंक दिया और क्रोधित होते हुए बोले, ‘कैसा चित्र बनाकर लाए हो? इससे अच्छा तो सड़कों पर बेचने वाले पटिए बना लेते हैं।’ रवींद्रनाथ टैगोर ने जमीन पर पड़े चित्र को देखा, तो वह मुग्ध होकर उसे निहारते रहे। अपने गुरु के मुख से कटु शब्द सुनकर नंदलाल निराश हुए।

उन्होंने गुरु के चरण स्पर्श किए और चित्र लेकर चुपचाप लौट आए। उनके लौट जाने के बाद रवींद्रनाथ ने अवनींद्र बाबू से पूछा, ‘मैंने तो श्रीकृष्ण की ऐसी कलात्मक तसवीर कभी नहीं देखी। फिर भी आपने नंदलाल को क्यों डांटा?’ अवनींद्रनाथ ने कहा, ‘रवींद्र बाबू, वास्तव में चित्र जितना सुंदर था, वैसा तो मैं भी नहीं बना सकता। किंतु मैं नंदलाल की कला को और विकसित करना चाहता हूं। यदि उसकी प्रशंसा कर देता, तो वह और अधिक परिश्रम नहीं करता। अपनी कला पर संतोष कर बैठता।

इसलिए मैंने उसे डांटा।’ यह कहते-कहते अवनींद्र बाबू की आंखों से अश्रु दुलक पड़े। आगे चलकर नंदलाल की ख्याति एक चित्रकार के रूप में देश-विदेश में फैली।


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कल्पवृक्ष है मन

एक थका-हारा व्यक्ति एक जंगल में वृक्ष के नीचे बैठा था। उसे जोर से प्यास लगी थी। उसने सोचा कि क्या ही अच्छा हो यदि मुझे पीने के लिए ठंडा- ठंडा पानी मिल जाए। उसका यह सोचना था कि वहां फौरन एक लोटा ठंडा पानी पहुंच गया।

उसने फिर सोचा कि क्या ही अच्छा हो यदि खाने के लिए स्वादिष्ट भोजन भी मिल जाये,उसका इतना सोचना था कि सामने खूब सारा स्वादिष्ट भोजन आ गया, उसने पेट भर भोजन किया।भोजन करने के बाद उसके मन में विचार आया कि इस निर्जन वन में मेरे सोचते ही पानी और खाना आ गया…
आखिर कहां से आया ये भोजन और पानी?
कहीं ये भूत-प्रेत की माया तो नहीं?
इस विचार से वह डर गया और थर-थर कांपने लगा

उसका इतना सोचना और अपनी सोच के प्रभाव से भयभीत होना था कि सचमुच एक भूत वहां आ उपस्थित हुआ और बोला, मैं तुम्हें खाऊंगा।
वस्तुतः वह व्यक्ति एक कल्पवृक्ष के नीचे बैठा था। इस प्रसंग से एक बात स्पष्ट होती है कि कल्पवृक्ष के नीचे की जाने वाली हर इच्छा पूर्ण होती है, लेकिन इच्छा के पूर्ण होने के लिए सबसे जरूरी चीज है मन में इच्छा का होना अर्थात इच्छा के अभाव में कल्पवृक्ष भी फल नहीं दे सकता।

कामना नहीं तो कैसी कामनापूर्ति? हर फल या परिणाम किसी कर्म के फलस्वरूप ही उत्पन्न होता है। कर्म नहीं करेंगे तो फल नहीं मिलेगा। कर्म की प्रेरणा विचार से ही उत्पन्न होती है और विचार का उदगम है मन ।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जैसी इच्छा होगी वैसा ही परिणाम आएगा। हमारी सफलता-असफलता, सुख-दुख, लाभ-हानि, सब हमारी सोच द्वारा निश्चित होते हैं।

सकारात्मक सोच का अच्छा परिणाम तथा नकारात्मक सोच का बुरा परिणाम। तभी तो कामना की गई है कि मेरा मन शुभ संकल्प वाला हो। यह पूरा ब्रह्मांड ही कल्पवृक्ष है जो हमारे भावों के अनुरूप हमारी सृष्टि का निर्माण करता है।
हमारी आंतरिक और बाह्य सृष्टि सब हमारे भावों से आकार पाती है और भावों से ही नियंत्रित होती है। सकारात्मक भावों द्वारा इसे सही आकार प्रदान किया जा सकता है तथा नियंत्रण द्वारा गलत आकार पाने से रोका जा सकता है।


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रोग का निवारण

काशी के राजा ब्रह्मदत् का बड़ा पुत्र विरक्त स्वभाव का था। पिता की मृत्यु के बाद उसने अपने छोटे भाई को राजा नियुक्त किया और जंगल चला गया। कुछ वर्ष बाद उसके मन में राज करने की इच्छा जागृत हुई। छोटे भाई को पता चला, तो उसने आदर सहित राज्य की बागडोर उसे सौंप दी। राजा बनते ही उसके मन में राज्य-विस्तार की लालसा जागने लगी।

उसने कई राज्यों पर चढ़ाई कद उन्हें अपने राज्य में मिला लिया।
इंद्र ने जब देखा कि एक धर्मपरायण व्यक्ति माया के जाल में फंस गया है, तो उन्होंने उसे सही रास्ते पर लाने का निर्णय किया। एक दिन ब्रह्मचारी के वेश में आकर उन्होंने राजा से कहा,”मैं ऐसे तीन नगरों की यात्रा कर आया हूं, जहां अपार स्वर्ण व रत्नों के भंडार हैं।

यदि वे नगर आपके हाथों में आ जाएं, तो आप अथाह संपत्ति के स्वामी बन जायेंगे। यह बताकर वह वापस लौट गए। राजा ने सोचा कि ब्रह्मचारी ने नगरों के नाम तो बताए ही नहीं।
उसने ब्रह्मचारी की खोज कराई, लेकिन उसका कोई पता न चला। राजा की नींद उड़ गई।

अपार संपदा की तृष्णा ने उसे रोगी बना दिया। एक दिन बोधिसत्व भिक्षा के लिए राजमहल पहुंचे , राजा से मिलकर वह समझ गए कि रत्नों की लालसा ने रोगी बना दिया है। उन्होंने उपदेश देते हुए कहा,”आपको शारीरिक नहीं, मानसिक रोग है। धन की लालसा ने आपके शरीर को व्याधियों का घर बना दिया है।’ ब्रह्मदत्त ने उसी क्षण राजपाट त्याग दिया। उन्होंने अपना जीवन साधना में लगा दिया। वह पूर्ण स्वस्थ हो गए….


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राजा पीपाजी की अनूठी विरक्ति

दक्षिण भारत के एक राज्य के अधिपति पीपा परम सदाचारी और धर्मात्मा थे। प्रजा की सेवा में तत्पर रहने के साथ-साथ वह नियमित रूप से भगवान का ध्यान तथा धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया करते थे।

एक बार किसी विख्यात संत की सलाह पर वह प्रधानमंत्री तथा अन्य लोगों को साथ लेकर रामानंद के दर्शन के लिए काशी पहुंचे। उन्होंने प्रधानमंत्री को स्वामी जी के पास भेजा। उसने कहा, ‘हमारे राजा आपके दर्शन करना चाहते हैं। आश्रम में आने की स्वीकृति दें।’ स्वामी जी ने कहा, ‘राजा- महाराजाओं से मुझे क्या लेना देना। मै निर्धन व यायावर साधु-संन्यासियों से बातें कर संतोष का अनुभव करता हूं।’

पीपा तुरंत राजधानी लौट आए। उन्होंने अपनी तमाम व्यक्तिगत संपत्ति निर्धनों में वितरित कर दी। एक निर्धन के रूप में वह पुनः काशी पहुंचे। स्वामी रामानंद का जब राजा के इस त्याग का पता लगा, तो उन्होंने उन्हें उपदेश देते हुए कहा, ‘राजन्, अपने को राजा की जगह भगवान का प्रतिनिधि मानकर जनता की सेवा करो। यही राजा का सवर्वोत्तम धर्म है। राज्य में कोई भूखा प्यासा न रहने पाए, किसी के साथ अन्याय न हो, इसका ध्यान रखते हुए भगवान की उपासना करो।

ऐसा करने पर तुम्हारी गणना आगे चलकर सद्‌गृहस्थ राज-संत के रूप में होगी। कुछ वर्ष बाद स्वामी रामानंद उनके राज्य में पहुंचे। पीपा तथा उनकी सनी को उन्होंने दीक्षा दी।, पीपा की गणना आगे चलकर परम विरक्त राज-संत के रूप में हुई।



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सच्चा उत्तराधिकारी

महात्मा शिबि बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। धर्मशास्त्रों के ज्ञाता तथा परम तपस्वी होने के कारण ऋषि-महर्षि भी उनका सम्मान करते थे। शिबि ने अपने पुत्र सत्यकाम को धर्मशास्त्रों और विभिन्न नीतियों का ज्ञान कराने के लिए महर्षि पिप्पलाद के पास भेजा। गुरु के सान्निध्य में रहकर सत्यकाम उच्च कोटि का विद्वान बन गया।

सत्यकाम की प्रतिभा से संतुष्ट होकर शिबि ने महर्षि पिप्पलाद से अनुरोध किया कि वह पुत्र को उत्तराधिकारी बनाने का संस्कार संपन्न करा दे। सत्यकाम चिंतित हो उठे कि उत्तराधिकार सौंपने के बाद पिताश्री घर से निकल गए, तो वह निराश्रित हो जाएंगे। शुभ मुहूर्त पर महर्षि पिप्पलाद ने उत्तराधिकार संस्कार संपन्न कराया।

यज्ञादि के बाद शिबि ने संकल्प दोहराया, ‘पुत्र, मैं अपने वाणी के समस्त सद्गुण, नेत्रों में विद्यमान विमल दृष्टि, अपनी कर्म प्रवृत्ति, अपनी बुद्धि, ज्ञान सब तुम्हें सौंपता हूं।’ पुत्र ने कहा, ‘मैं सादर स्वीकार करता हूं।’ पिता ने घर की परिक्रमा की और पुत्र के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया।

सत्यकाम ने गुरुदेव से प्रार्थना की, ‘ऐसी व्यवस्था करें कि पिताश्री घर त्यागकर न जाएं।’ पुत्र का आग्रह देख शिबि ने कहा, ‘शास्त्र में दोनों प्रकार के विधान हैं। मैं घर में भी रह सकता हूं। मेरी आध्यात्मिक ऊर्जा, भौतिक संपत्ति अब तुम्हारी है। दायित्व का हस्तांतरण करने के बाद अब मैं तुम्हारा आश्रित हो गया हूं।’ सत्यकाम सपरिवार दायित्व निर्वाह में जुट गया। पिता घर में रहकर ही साधना-अध्ययन में लीन रहने लगे।          

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