Romantic Story in Hindi || Romantic Story

Romantic Kiss

“कल जन्मदिन है मेरा, आप क्या खास तोहफा मुझे देने वाली है?”

“किस!”

“किस, आँखों से उनकी नज़रों में झाँककर मैंने आश्चर्य भाव से पूछा।

“आज तक मैंने आपसे बस हाथों में हाथ रखकर ही बातें की है। इस मोबाइल वाले ज़माने में अक्सर चिट्ठियाँ भेजकर ही हमने अपने दिल की धड़कनें साझा की हैं। वैसे भी मुझे आपका माथा भी बंधन में बँधने के बाद ही चूमना है।”

“इतना नहीं सोचते मेरी जान! बात तो जुबान से निकल चुकी है, और मैं चाहती हूँ ऐसे ख़ास दिन पर अपनी बात को जाया ना करूँ। लेकिन हाँ कल घर आइएगा तभी आपको प्रेम वाली किस मिलेगी।”

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अगले दिन शाम को घर से निकलते ही, कुछ दूर चलते ही, रास्ते में यही सोचता रहा, कहीं किस के बहाने वो मुझे आश्चर्यचकित तो नहीं करने वाली है। कितनी बार उन्होंने मुझे माँ से मिलाने की कोशिश की है, हो सकता है सोचा होगा, उनसे मिलवाने का ये अच्छा अवसर है। लेकिन फिर ये किस वाली बात दिमाग़ में आ गई। और इतनी बार गूंजी कि कब उनके घर के सामने था, पता ही नहीं चला।

वो सामने दरवाज़े पर ही थीं, मानो सुबह से ही मेरा इन्तज़ार किया जा रहा हो। शुभकामना देते हुए मुझे घर के अन्दर ले गई। यहाँ माँ के साथ-साथ पिताजी भी बैठे हुए थे। गर्दन से छूटते पसीने ने बस ये याद दिलाया कि नमस्ते किया जाए। मैं उनका आशीर्वाद लेकर कुर्सी पर बैठ गया।

उनकी सहेली ने चाय का कप लाकर मेरे सामने रख दिया। और झुकते हुए अन्तराल के मध्य ही कहा कि चाय की तह तक हौले-हौले…इतना ही कहा और हँस के चली गई।

कप को ध्यान से देखा तो लगा कि चाय की चुस्की से उन्होंने सहेली के हाथों पैगाम भिजवाया था। उनके होठों के निशां ऊपरी सतह पर मेरे लबों से गुफ़्तगू करने का इन्तज़ार कर रहे थे। पहली बार मेरे होंठ काँप रहे थे। मैंने पढ़ा था चूमते वक़्त आँखें खुली रखना प्रेम में किया जाने वाला प्यारा संगीन अपराध है। मैंने आँखें बन्द कीं और नर्म होंठों से पहली चुस्की ली। मुझे इतनी मिठास कभी महसूस ही नहीं हुई थी। ऐसा लगा मानो अन्तर्मन को उनकी रूह ने छुआ हो। उन्होंने उपहारस्वरूप मुझे किस दे दी थी। मैंने दूसरी चुस्की लेने से पहले उनकी तरफ़ देखा, वो पास खड़ी मंद-मंद मुस्करा रही थीं।

शायरी लव रोमांटिक

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रबड़ी

गर्मी की छुट्टियों की शाम होती और केन नदी पर बसे शहर होने के कारण शालीनता से चलती शीतल हवा। जो शाम का हमारा इश्क़ होता वो थी रबड़ी जो गरमागरम कढ़ाई से ठीक हमारे सामने निकाली जाए और फिर मात्र पाँच रुपये में प्रस्तुत कर दी जाए।

रबड़ी इश्क़ थी और रिया मोहब्बत । इश्क़ के ठीक अपोजिट में मोहब्बत का घर हुआ करता था। बहुत ही छोटी सी थी रिया पर अदाएँ मधुबाला से कम नहीं। उसके बाल घुटने के पीछे वाले हिस्से तक पहुँच जाते होंगे शायद। शायद… इसलिए कि घर की दीवार से वो एक-तिहाई छुप जाती थी। शाम को जब मैं वहाँ पहुँचता वो वहीं हुआ करती थी। उसके साथ मगर हर समय कोई न कोई होता था। कभी उसके पिताजी समान पुरुष, माताजी समान महिला तो कभी बच्चा सा भाई।

मेरी हल्की सी मूँछ के रोएँ दिखने लगे थे और सुन्दरता- ए-हुस्न को सराहने की क्षमता आ गई थी। तो बस मोहब्बत हो गई। मोहब्बत में न जाने क्यों हम सब अपने आप को मैच्योर साबित करने में लग जाते हैं। इसी शृंखला में मुझे अपनी हाफ़ पैंट से नफ़रत होने लगी जो मेरी माँ की पसन्द हुआ करती थी। हर दिन फुल पैंट की ज़िद में माँ से दो चाँटे गिफ्ट में मिलते थे।

तो हाफ़ पैंट से इम्प्रेस करने में संकोच था इसलिए रिया को आड़ से रबड़ी का स्वाद लेते हुए देखता था। अक्सर जब भी उसे देखता, उसके बाल गीले व खुले हुए होते थे और वो कलम मुँह में डाले अपने ठीक सामने बिजली के तारों के जंगल को निहारती रहती थी। बग़ल में अख़बार पढ़ता हुआ कोई अदृश्य सा आदमी नज़र आता ।

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उसका नाम अब रिया ही था, ये पता नहीं पर उसके घर का नाम रिया-सदन ज़रूर था इसलिए वो रिया ही थी।

उन तारों की आड़ से, मैं उसको देखता जिसमें से मैं उसे पूरा एक साथ कभी नहीं देख पाता। कभी आँखें, कभी गाल, कभी होंठ । रबड़ी का स्वाद जीभ पर और रिया का स्वाद मन में। इसी में जो कभी बारिश हो जाया करती तो मौसम में मैं बहक जाता और घूँघट से बाहर आ सड़क पर झूमने लगता ।

बिंदास था मैं तब, अब नहीं… अब तो सिर्फ़ बन्द कमरे में अँधेरे में छिपकर नाच पाता हूँ। जब भी मैं अपने परदे से बाहर आता, वो परदे के अन्दर चली जाती ।

एक ख़ास बात थी उसमें। कभी-कभी ही वो कलम लेकर बालकनी में आया करती थी और जैसे ही पहली लाइन अपनी नोटबुक पर लिखने जाती वैसे ही बारिश होने लगती। यानी कि जिस दिन उसके हाथ में कलम होती उस दिन बरसात होती थी। वो शायद मल्हार राग थी।

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दिन बीतते रहे, छुट्टी उम्रदराज़ होती रही फिर मैं जब गर्मी की छुट्टी के आख़िरी दिन रबड़ी खाने निकल रहा था, माँ ने मेरे फुल पैंट के सपने को साकार कर दिया। उसे पहनते ही मैं ऐसे ख़ुश हुआ जैसे कि मेरी मोहब्बत अब मुकम्मल हो जाने वाली थी। मैं इतना खुश था कि बिना पैसे लिए ही सड़क पर दौड़ पड़ा। उस दिन ऐसा लग रहा था मानो रबड़ी मेरे खून में दौड़ रही हो।

जब मैं वहाँ पहुँचा तो रबड़ी उस दिन हलवाई की लापरवाही से जल गई थी। मन में कुछ हरारत-सी हो गई। निराशा से जब मैंने पीछे मुड़ा, वहां कोई नहीं था। रिया-सदन पर ताला लगा हुआ था। जैसे ही मैच्योर हुआ, मोहब्बत गायब हो गई।

वैसी रबड़ी का स्वाद आज तक फिर कभी कितनी ही बड़ी दुकानों में खाकर भी नहीं आया। शायद उस स्वाद के साथ मोहब्बत का स्वाद भी जुड़ जाता होगा।

आज भी जब बादल छाते हैं तो मुझे लगता है कि वो कहीं पहली लाइन लिखने वाली होगी। उसकी पहली लाइन से पहले ही मैं निक्कर पहन निकल पड़ता हूँ रबड़ी खाने के लिए।

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